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डॉ. मनमोहन सिंह, कहानी उस शख़्स की जिसने भारत कंगाल होने से बचाया

साल 1991, देश पर आया एक ऐसा संकट जैसा पहले कभी देखा गया। देश का मुद्रा भंडार गर्त में जा रहा था। साल के मध्य तक हम सिर्फ 2 हफ्तों तक के लिए ही आयात करने में सक्षम थे। सरकार को कर्ज मिलना मुश्किल हो चला था। देश दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गया था। तभी सरकार में एंट्री होती है एक ऐसे शख्स की जिसने वो कर दिखाया, जो किसी सपने से कम नहीं था।

मैं बात कर रहा उस शख्स की जो अब इस दुनिया में नहीं रहा। मैं बात कर रहा भारतीय अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाले डॉ. मनमोहन सिंह की। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 26 दिसंबर की रात इस दुनिया को  अलविदा कह दिया। उन्होंने दिल्ली के AIIMS अस्पताल में अंतिम सांस ली। वे 92 साल के थे।

डॉ. सिंह के निधन पर पूरा देश उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा। सोशल मीडिया पर उनके पुराने वीडियो की बाढ़ सी आ गई है। कोई उन्हें ट्रू स्टेटमैन बता रहा तो कोई आर्थिक सुधारों का जनक...। डॉ. सिंह के निधन पर उनके एक बयान की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इस बयान में वह यह कहते दिख रहे कि मुझे उम्मीद है इतिहास मेरे प्रति मीडिया से अधिक उदार रहेगा"

डॉ. मनमोहन सिंह को इतिहास कैसे याद करेगा? क्या वाकई इतिहास डॉ. सिंह के प्रति उदार रहेगा? इसके लिए हमें एक बार फिर नब्बे के दशक की शुरुआत में चलना होगा। सालों के मिसमैनेजमेंट के कारण नब्बे का दशक आते-आते भारतीय अर्थव्यवस्था धराशाई होने की कगार पर पहुंच चुकी थी। 1991 के मध्य तक हालात बद से बदतर हो चुके थे। गल्फ वॉर के चलते कच्चे तेल की कीमतों में आग लगी हुई थी। महंगाई दर कंट्रोल से बाहर जा चुकी थी। भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 18 प्रतिशत क्रैश कर चुका था।  राजकोषीय घाटा करीब 8.4 फीसद जबकि, चालू खाता घाटा 2.5 फीसदी पर पहुंच चुका था। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घट रहा था। जून तक भारत के पास सिर्फ पांच बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। जुलाई आते-आते मुद्रा भंडार इतना कम हो गया कि हम महज एक पखवाड़े भर के लिए ही आयात कर सकते थे। हालात इतने बुरे थे कि देश दिवालिया होने की कगार पर पहुंच चुका था।

धराशाई होती अर्थव्यवस्था को देख नरसिम्हा राव ने सलाहकार पीसी अलेक्जेंडर से वित्त मंत्री पद के लिए अंतरर्राष्ट्रीय पहचान वाले किसी आर्थिक विशेषज्ञ का नाम सुझाने को कहा। अलेक्जेंडर ने पहले तो RBI गवर्नर रह चुके आईजी पटेल का नाम सुझाया, लेकिन बात नहीं बन पाई। ऐसे में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के सलाहकार रहे डॉ. मनमोहन सिंह के नाम का सुझाव दिया। डॉ. सिंह को इसकी जानकारी शपथ समारोह से महज एक दिन पहले मिली। शपथ ग्रहण से महज 3 घंटे पहले मनमोहन सिंह के पास नरसिम्हा राव का कॉल आया। नरसिम्हा राव ने मनमोहन से कहा, अगर हम सफल होते हैं तो इसका श्रेय हम दोनों को मिलेगा, लेकिन अगर हमारे हाथ असफलता लगी तो आपको जाना होगा।

डॉ. मनमोहन सिंह को भी पता था कि अर्थव्यवस्था के हालात भयावह हैं। तुरंत कोई समाधान देना असंभव है। इस स्थिति से निपटने के लिए उठाए गए कदमों के परिणाम कुछ भी हो सकते हैं। इन सबके बीच, डॉ. सिंह  ने कैबिनेट मंत्री पद की शपथ ली।

सबकी नजर नए-नए वित्त मंत्री बने डॉ. मनमोहन सिंह पर थी। डॉ. सिंह भी नॉर्थ ब्लॉक पहुंचते ही नासूर बन चुकी अर्थव्यवस्था पर काम शुरू कर दिया। सिंह के सामने पहली चुनौती देश को दिवालिया होने से बचाना और खर्च के लिए पैसे जुटाना था। भारत के आर्थिक हालात को देखते हुए कोई भी कर्ज देने को तैयार नहीं था। ऐसे में डॉ. सिंह ने रिजर्व बैंक के स्वर्ण भंडार का सहारा लिया। उन्होंने देश का करीब 47 टन सोना अंतरराष्ट्रीय बैंकों में गिरवी रखकर करीब 600 मिलियन डॉलर जुटाए, जबकि IMF से दो मिलियन डॉलर लिए।

मनमोहन सिंह जानते थे कि गर्त में जा चुकी देश की अर्थव्यवस्था के लिए आमूल-चूल परवर्तन जरूरी हैं। डॉ. सिंह ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण यानी एलपीजी पर केंद्रित आर्थिक सुधारों का खाका तैयार करने पर काम शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने रुपये के मूल्य कम करने यानी अवमूल्यन का फैसला लिया। साथ ही, निर्यात पर से सरकार के नियंत्रण को हटा लिया।

इसके बाद आई वो तारीख जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव को बदलकर रख दी। वो तारीख थी 24 जुलाई, 1991...। यह वह दिन था जब देशभर की निगाह वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर थी। डॉ. सिंह अपना पहला बजट पेश करने जा रहे थे। उनका यह बजटीय भाषण गर्त में जा चुकी अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा तय करने वाला था। लोग डॉ. सिंह से किसी त्वरित समाधान की उम्मीद लगाए बैठे थे। डॉ. सिंह भी फुलप्रूफ प्लानिंग के साथ आए थे।

डॉ. सिंह ने अपने बजट भाषण की शुरुआत संसद को यह बताते हुए की कि देश के पास महज 15 दिनों के आयात करने भर का विदेशी मुद्रा भंडार बचा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि हमारे पास खोने के लिए समय नहीं है, और फिर एक के बाद एक आर्थिक सुधारों का एलान शुरू कर दिया।

अपने इस बजटीय भाषण में उन्होंने अर्थव्यवस्था को अपंग करने वाली लाइसेंस राज प्रणाली को खत्म करने, विदेशी निवेश के लिए अर्थव्यवस्था के द्वार खोलने और सार्वजनिक कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन करने जैसी कई अहम नीतियों की घोषणा की। बजट में की गई इन साहसिक घोषणाओं ने भारतीय बाजार को सरकार के अनावश्यक नियंत्रण से आजाद कर दिया।

वित्तमंत्री सिंह का यह बजटीय भाषण डेढ़ घंटे तक चला जो, अबतक का सबसे लंबा भाषण था। डॉ. सिंह अपना बजटीय भाषण देकर आत्मविश्वास से लबरेज थे। लेकिन, मुश्किल से बहुमत साबित कर कुछ दिन पहले बनी इस गठबंधन सरकार में आर्थिक सुधारों का समर्थन करने वाले गिनती भर के थे। इन सुधारों को लेकर विपक्ष और मीडिया ही नहीं बल्कि, उनकी सरकार के कई कद्दावर नेता भी नाराज थे। लेकिन, प्रधानमंत्री राव के विश्वास और समर्थन से डॉ. सिंह आर्थिक सुधारों पर करने में डटे रहे।

खतरा इतना बड़ा था कि आमूलचूल परिवर्तन जरूरी थे। मनमोहन सिंह ने न सिर्फ एलपीजी नीतियों को लागू किया, बल्कि अन्य मोर्चों पर भी विशेष ध्यान दिया।

1. डॉ. सिंह ने सबसे पहले राजकोषीय घाटे, यानी सरकार के खर्च में कमी और राजस्व में वृद्धि करने के उपायों पर ध्यान दिया। अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए यह सबसे जरूरी कदम था। 1990-91 में राजकोषीय घाटा GDP का 8.4% था। उन्होंने राजकोषीय घाटे में अगले वित्तीय वर्ष तक दो प्रतिशत तक की कमी लाने की योजना बनाई गई। इस लक्ष्य को प्राप्त के लिए उन्होंने कई अहम कदम उठाए। मसलन...डीजल-पेट्रोल और उर्वरकों पर मिल रही भारी-भरकरम सब्सिडी को कम कर दिया। चीनी पर दी जाने वाली सब्सिडी पूरी तरह समाप्त कर दिया।

उन्होंने कुछ सार्वजनिक उपक्रमों में सरकारी इक्विटी की बिक्री करने का भी फैसला लिया। इस फैसले से सरकार को न सिर्फ पैसे जुटाने में मदद मिली, बल्कि बाजार को भी बूस्ट मिला। उन्होंने राजा चेलैया समिति की सिफारिशों को भी लागू किया, जिससे टैक्स स्ट्रक्चर को स्थिर और पारदर्शी बनाया जा सका।

2. भुगतान संतुलन सुधारने के लिए रुपये के मूल्य में दो चरणों में भारी कमी की। जुलाई 1991 में रुपये का मूल्य लगभग 20% तक कम कर दिया। इस फैसले के कारण निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाया जा सका।

3. उन्होंने मोनिटरी और फाइनेंसियल सेक्टर में सुधार के लिए भी कई अहम कदम उठाए। इन सुधारों के तहत उन्होंने, आरक्षित आवश्यकताओं में भारी कमी करने का फैसला लिया। बैंकिंग क्षेत्र में ब्याज दरों पर आरबीआई के नियंत्रण को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया। नए निजी बैंकों को लाइसेंस जारी किए। बैंकों को अपनी शाखाओं को स्थानांतरित करने और विशेष शाखाएं खोलने की अनुमति दी। इन फैसलों से कॉर्पोरेट लोन के प्रबंधन, निवेश और व्यापार गतिविधियों को बढ़ावा देने में मदद मिली।

3. उन्होंने कैपिटल मार्केट में पारदर्शिता और कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए भी कई कदम उठाए। जैस 1992 में प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) को वैधानिक मान्यता दी। पूंजी बाजार में पारदर्शिता बढ़ाने और निवेशकों के अधिकारों की रक्षा के लिए नए दिशा-निर्देश लागू किए गए।

4. इसके अलावा, नई औद्योगिक नीति की घोषणा की। 18 उद्योगों को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों में लाइसेंस की आवश्यकता समाप्त कर दी गई। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्षेत्रों की संख्या 17 से घटाकर 8 कर दी गई। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश को बढ़ावा दिया।

5. वहीं, व्यापार नीति को भी उदार बनाया किया। नई व्यापार नीति के तहत उन्होंने उन सभी आयात प्रतिबंधों को हटा दिया, जो गैर जरूरी थे। आयात शुल्क को 300% से घटाकर 150% कर दिया। एक्सपोर्ट हाउसेस को आयात पर छूट दी। साथ ही, विदेशी इक्विटी के साथ ट्रेडिंग हाउस स्थापित करने की भी अनुमति दी।

6. विदेशी निवेश के लिए अर्थव्यवस्था के द्वार खोल दिए। निवेशकों को आकर्षित करने के लिए उच्च तकनीकी और उच्च निवेश वाले उद्योगों में 51% विदेशी इक्विटी को मंजूरी दी। विदेशी संस्थागत निवेश (FII) को भारतीय बाजार में प्रवेश की अनुमति दी। साथ  ही, विदेशी निवेश को सुगम बनाने के लिए विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड (FIPB) की भी स्थापना की।

आर्थिक सुधारों इन फैसलों ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट से निकाला बल्कि आईटी, टेलीकॉम, और रिटेल जैसे क्षेत्रों में क्रांति लाने का मार्ग प्रशस्त किया। उदारीकरण और वैश्वीकरण ने स्टार्टअप्स और उद्यमिता को बढ़ावा दिया, जिससे भारत आज स्टार्टअप इकोसिस्टम में दुनिया के शीर्ष देशों में शामिल हो चुका है।

डॉ. सिंह ने 1991 के बजटीय भाषण में फ्रांसीसी उपन्यासकार विक्टर ह्यूगो को उद्धृत करते हुए कहा था, "दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया है। भारत का एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना एक ऐसा ही विचार है। पूरी दुनिया इसे स्पष्ट रूप से सुन ले। भारत अब पूरी तरह से जाग गया है। हम जरूर विजयी होंगे" उस समय डॉ. सिंह के इन वाक्यों पर शायद ही किसी ने विश्वास किया हो, लेकिन आज उन्होंने इन वाक्यों को सच कर दिखाया।

यह तो थी डॉ. सिंह के बतौर वित्तमंत्री किए गए ऐतिहासिक कामों की। प्रधानमंत्री के तौर पर भी उनके नाम कई ऐतिहासिक उपलब्धियां दर्ज हैं, जिनपर बात फिर कभी।

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